मै तुम्हें कौन से तोहफे सजा के लाऊं अब


खुली राहों में सिसकती हुई रातों के सिवा
मै तुम्हें कौन से तोहफे सजा के लाऊं अब

अब तो जीवन में कहीं ख्वाब का सिंगार नही
मेरी रातों में पला दर्द है बहार नही
मेरी डूबी हुई हसरत को सिवा मरने के
किसी रंगीन किनारे से सरोकार नही
घने जंगल में सुलगती हुई शाखों के सिवा
मै तुम्हें कौन से तोहफे सजा के लाऊं अब

मेरी आँखों में बसे अश्क बसी चाह नही
मै अकेला हूँ मेरा कोई हमराह नही
मेरी नाकाम उमंगों को सिवा रोने के
गम हटाने की मिली और कोई राह नही
गम के बोझ से दबती हुई सांसों के सिवा
मै तुम्हें कौन से तोहफे सजा के लाऊं अब
-अरुण

Comments

Popular posts from this blog

मै तो तनहा ही रहा ...

यूँ ही बाँहों में सम्हालो के

पुस्तकों में दबे मजबूर शब्द