मन किसी भी वस्तु, घटना, प्रसंग या स्थिति को शुद्ध समझ से देख नही पाता शब्द नाम और संकल्पनाओं की गति में मन हमेशा उलझा हुआ है ‘ जो जैसा है ’ उसे वैसा ही देखने की जगह देखने पर जो प्रतिमा बनती है उस प्रतिमा को ही मन वास्तविकता का स्थान देता है परिणामतः शुद्ध समझ बन ही नही पाती ............................................ अरुण
अहंकार करता दुजा अपने मन पर घात अगला कद ऊँचा करे हम खुद छोटे पात ..... यदि सामनेवाला आदमी हमारे सामने अहंकार से भरा आचरण करता हो और यह बात अगर हमें चुबती हो तो यह स्पष्ट है कि उसका आचरण हमारे अहंकार को ठेस पहुँचा रहा है सामने वाला खुद की स्तुति करे यह हम सहन कैसे कर सकते हैं क्योंकि वह जब अपना कद बढाता है हमें हमारा कद छोटा होता मालूम पडता है आपसी संबंधों की यह पेचीदगी समझने जैसी है ................................. अरुण
आईने के भीतर आईने का प्रतिमा-विरहित शुद्धतमरूप देखने के लिए जब भी झांकता हूँ वहाँ अपनी ही प्रतिमा के सिवा मुझे कुछ नही दिखता .. ये तो आइना है जिसका सरोकार किसी से भी नही जो भी सामने आए प्रतिबिंबित तो हो जाता है पर किसी भी प्रतिबिम्बन को आइना पकड़ कर नही रखता जीवन का शुद्धतम स्वरूप ऐसा ही प्रतिमा विरहित प्रतिबम्बन मात्र है ........................................ अरुण
कई पुजारी सत्य के मिलकर संघ बनाय पूजा होती संघ की लेकर झूठ उपाय ........... सत्य पूजने की नही खोजने की बात है सत्य- खोज पूरी तरह से निजी है, संगठनात्मक नही जहाँ संगठन बना राजनीति या झूठ का अवतरण होना लाजमी है ................................. अरुण
यहाँ का माहोल, यांत्रिक भीड़ शोरोगुल और लोगों में चेहरों पर दिखता यांत्रिक अहोभाव देखकर लगा मानो कोई फूल यहाँ उमड़ पड़ा होगा अपनी सुगंध को चहुँओर फैलाते इधर उधर से लोग खींचते चले आये होंगे उस सुगंध के कारण समय के बीतते फूल मुरझाया और कालांतर से गंध भी खो गई समय के आकाश में परन्तु भीड़ का सिलसिला चालू रहा भीड़ ने अपनी ही गंध को उस सुनिसुनायी सुगंध का नाम दिया अब भीड़ को देखकर व्यापारियों की भी रूचि बढ़ी उन्होंने खड़ा किया भव्य मंदिर चढाओं की परम्परा चलाई प्रसाद बांटना शुरू किया भीड़ इतनी बढ़ी कि उस सुगंध के नाम से होटलों, बसों, और टूरिस्ट सेंटरों का भी धंधा चल पड़ा है अच्छी तरह ................................................... अरुण
राजनीतिज्ञों की मूल कमजोरी यह है कि वे हमेशा या तो सत्ता का अवसर चूकने या पाई हुई सत्ता खो देने के भय से ग्रस्त है और इसीलिए अपने मन कि बात सीधे सीधे उजागर नही कर पाते सत्ताधारी भी डरा है और विरोधी भी जिनकी मौलिक धारण संविधान से मेल नही खाती वे भी संविधान में अपना विश्वास जताते है और जो संविधान की मूल मान्यता से हटकर अपनी राजनीति चलाते है वे भी दुहाई संविधान की ही देते रहते हैं निष्कर्ष यह कि जिनका मन कुछ और तो आचरण कुछ और - ऐसों को ही राजनीतिज्ञ कहा जाता है ............................................... अरुण
क्यों न की मेरे अंतिम यात्रा की शुरुवात उसी दिन जिस दिन मैं इस धरती पर आया क्योंकि उसी दिन से तो शुरू कर दिया आपने गला घोटना मेरी कुदरती आजादी का उसी दिन तो शुरू किया आपने मेरे निरंग श्वांसों में अपनी जूठी साँस भरकर उसमें अपना जहर उतारना उसी दिन से तो मुझे कैद कर लिया आपके विचारों, विश्वासों और आस्थाओं ने आपने बड़ा किया, बढ़ाया मुझे एक इस अच्छे-भले कैदखाने में अच्छी तरह से जीना सीखाया यह कैदभरी जिंदगी, मुझे सामान बनाया सामाजिक प्रतिष्ठा का अब पहुँचने जा रहा हूँ अंतिम छोर पर उस राह के जिसका आरम्भ कभी हुआ ही नही .......................................... अरुण
सत्य का स्पर्श जीवन के जीवंत प्रवाह में ही होना है सभी संबंधों में, अंतःक्रियाओं में. रोजमर्रा जिंदगी में ही होना है जैसे नदी का स्पर्श उसकी बीच-धारा में है तट पर बैठकर उसकी पूजा आराधना जप-जाप करने में नही ...................................... अरुण
सपने और वास्तव के बीच का भेद नींद और जागरण की स्थिति के भेद द्वारा समझाया जाता है जब जागरण में भी नींद सक्रीय रहती है तो जागरण कों निद्रस्थ- जागरण कहना चाहिए प्रायः इसी निद्रस्थ -जागरण में हम सब जी रहे हैं ऐसे जागरण कों भी जब होश आता हो तो उस स्थिति कों ही बुद्धत्व कहते होंगे शायद ...................................................................... अरुण
सभी धर्मों का आशय इतना ही है कि आदमी में सत्पुरुष अवतरित हो ऐसा होने के लिए आदमी क्या करे, यह कोई भी धर्म न सिखाता है और न सिखा सकता है इस प्रकार की सीख देने के प्रयास में लौकिक अर्थ में कई तथाकथित धर्म प्रचलित हुए पर सभी अधिक से अधिक ‘ अच्छा ’ पन सिखा सके ‘ सच्चा ’ पन नही, क्योंकि सच्चापन आदमी की अपनी निजी खोज से फलता है किसी सामाजिक अभियान से नही ...................................................... अरुण
सच का सच जब कहना चाहा सच्चों ने मुंह फेर लिया इतनी सच्ची कडवी लगती, अच्छों ने मुंह फेर लिया ............ सच्ची बातें प्रायः सभी को अच्छी लगती है जैसे ‘ ईश्वर की नजर में सभी एक हैं कोई भेद नही- न जाति का, न धर्म का, न किसी तरह का ’’ इस तरह के विचार अच्छों के ह्रदय को छू लें यह तो स्वाभाविक है परन्तु यदि ईश्वर के अस्तित्व को लेकर कोई संदेह व्यक्त किया जाए तो अच्छे भले लोग भी दुखी हो जातें हैं सच का सच जानने और कहने का साहस प्रायः सब में नही होता ................................................. अरुण
जो हमें थामे हुए है वह है हमारा प्राकृतिक (आजाद) धर्म जिसे हम थामे हुए है वह है हमारा नीति=नियमाधीन (आरोपित) धर्म ऐसा धर्म जो हमें हमारी प्राकृतिक आजादी के खिलाप खड़ाकर कमजोर बना देता है, हमारी मूल प्रवृति को दबाता है ताकि वह हमपर आसानी से सत्ता बनाये रख सके नैसगिक धर्म है हमारी आजादी और नीति-नियमों वाला धर्म है हमारी आजादी पर लगाम कसने वाला, पर समाज को भानेवाला, समाज ने रचा हुआ तथाकथित धर्म ........ जो अपनी मूल आजादी से जुड़े हुए समाज-धर्म निभाने का कौशल्य रखते हैं उनका जीवन संतुलित है जो अपनी मूल-प्रवृत्ति के खिलाफ समाज-धर्म को ही सही माने में धर्म समझकर जी रहे हैं उनका जीवन ढकोसले से भरा हो तो आश्चर्य नही ..................................................... अरुण
हिंदू जगत में शांति चाहता है इस्लाम भी शांति का ही पक्षधर है दूसरे तथाकथित धर्म भी शांति के लिए ही हैं फिर भी एक दूसरे को सामने पाकर अशांत हैं बात तो अयुद्ध की कर रहे है पर जी रहे हैं युद्ध के माहोल में ........................................................ अरुण
होश में जो भी होता है सही है बेहोशी में होनेवाली हर बात है गलत होश की नजर में हर रास्ता साफ़ है सो कदम गलत जगह पड़ते ही नही बेहोशी सोयी रहती है विचारों में, कल्पनाओं में, अच्छे -बुरे या सही - गलत के चयन में कुछ पाने में, कुछ छोडने में और इस कारण भटक जाती है धुंधले रास्तों पर
सृष्टि ने दिए ध्वनि नाद और आकार के रूप में शब्द जीव ने दिया उसे संकेत या मन्शा के रूप में अर्थ इसी से बनी सारी भाषा और इसी से बना भाषाकार ... सृष्टि न होती तो जीव न होता और न ही होते शब्द और अर्थ और न ही होते भाषा और भाषाकार ................................... अरुण
जिंदगी छोटी बहुत छोटी, बहुत छोटी है ना समझ पाए जेहन जिसकी पकड़ मोटी है और इसीलिए जेहन या मन से पार जाकर ही जिंदगी को जाना जाता है .......................................................... अरुण
केवल बाहर दुनिया को देखनेवाली बुद्धि बुद्धिमान या पंडित का बहुमान पाने योग्य है परन्तु जब वह स्वयं को देखती है बुद्ध बन जाती है ........................................... अरुण
नींद ही नींद से करती बातें जागनेवालों में होती नही चर्चा कोई .... देखना बंद हुआ बोलना हुआ चालू ये जहाँ बोलनेवालों से ही आबाद हुआ ..... ये घना फैल चुका है लफ्जों का नगर के समझ लफ्जों तले घुंटती मरी जाती है ..... ख़ामोशी- भीड़ में रहती है अकेली न हुई हर दो लफ्ज के दरमियान बसा करती है ..... बोलने और सुनने वाले में न फर्क कोई एक ही जहन निभाता, दो अलग किरदार .............................. ..................... अरुण
नींद ही नींद से करती बातें जागनेवालों में होती नही चर्चा कोई .... देखना बंद हुआ बोलना हुआ चालू ये जहाँ बोलनेवालों से ही आबाद हुआ ..... ये घना फैल चुका है लफ्जों का नगर के समझ लफ्जों तले घुंटती मरी जाती है ..... ख़ामोशी- भीड़ में रहती है अकेली न हुई हर दो लफ्ज के दरमियान बसा करती है ..... बोलने और सुनने वाले में न फर्क कोई एक ही जहन निभाता, दो अलग किरदार
एक दोहा मछली से क्या पूछना पानी कैसा होत पानी जिसके प्राण हैं पानी जीवन ज्योत ........... एक चिंतन मै कौन हूँ ? – इस सवाल का कोई जबाब नही यह एक सघन-गहन खोज है जिसका कोई अंत नही .............................................. अरुण
सामने खड़े वर्तमान को देखना हो ही नही पाता क्योंकि वर्तमान में दिखता हुआ बीता और भविष्य ही सारा ध्यान आकर्षित कर लेता है जो भूत और भविष्य में विचरते हुए भी वर्तमान के स्पर्श को हर क्षण महसूस करता रहता है वही जीवंत है .................................... अरुण
जिंदगी की लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई और गहराई क्षण या साँस की लम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई और गहराई से अधिक नही यह तो आदमी की याददास्त का आंगन है जिसमें जिंदगी दिन, सप्ताह, वर्ष, दशक, शतक और युगों के पैमाने में फैलती दिखती है ................................................, अरुण
रंगमंच पर एक ही पात्र एक साथ अनेक भूमिकाएं इस सटीक ढंग से निभाता है कि लगता है - कई पात्र मिलकर विभिन्न भूमिकाएं कर रहें है दर्शक भी इतने रम जातें हैं कि उन्हें प्रतीत होता है कि मानो रंगमंच पर कई पात्र साकार हो चुके है मन भी इसीतरह का ‘ एक पात्र और बहुभूमिका ’ वाला नाटक है मन के इस नाटक में अभिनेता-दर्शक (दोनों एक ही यानी मन ) इस सच्चाई से बेखबर हैं कि वही एक (स्वयं) अनेक भूमिकाएं निभा रहा है ....................................... अरुण अब कुछ दिन विराम
ऐसी गिरावट के एक नमुने के रूप में, किसी राजनीतिक पार्टी द्वारा किए गये कुछ ऐसे बयान आजकल भारत में पढने-सुनने को मिलते हैं -- “ हमारी पार्टी आपके पार्टी जैसी भ्रष्ट नही है. यह ईमानदार लोगों की पार्टी है हमारे यहाँ अगर कोई मिनिस्टर अपने रिश्तेदारों में सार्वजनिक जमीन गलती से बाँट भी देता है तो यह बात सार्वजिक तौर पर उजागर होने पर, उनसे वापस लेकर जनता को लौटा भी देता है. आपके पार्टी के मिनिस्टर जैसा नही कि खाए और डकार जाए ” ........................................... अरुण
संसार की हर वस्तु, तथ्य, दृश्य, या प्रक्रिया का वर्णन किया जा सकता है परन्तु हर वर्णन के बाद भी कुछ अवर्णित ( unexplained) शेष बचता ही है और इसीलिए कहते हैं कि वर्णन हमेशा अधूरा है अतः जरूरत है इस अधूरेपन को भी देख सके उस दृष्टि की, केवल वर्णन की नही ........ वर्णन करना काम है विज्ञान का अधूरे के साथ साथ पूरे को देख सकना काम है दृष्टिमय बोध का इस दृष्टिमय बोध के अभाव के कारण ही सदियों से सच समझाना जारी है और कभी भी पूरा नही हो पा रहा ......................................... अरुण
अपनी ही हर खुशी से परेशां हैं सारे लोग किसको खुशी कहें , हर दिल में हो तलाश अँधेरा काट लेगा, डर के न भागो यारों इसी जगह पे छुपा है, रौशनी का चिराग सवाल उठने से पहले जबाब हाजिर हो ऐसे माहोल में नयी सोच नही बन पाती जहाँ खिला है फूल खुश है जिंदगी पाकर पिरोके माला में मौत उसे मत देना महलों को गरीबी में सादगी दिखती गरीबी में ख्वाब उठते हैं महलों के अँधेरा–ओ-उजाला, बेखुदी-ओ-होशियारी दोनों ने नही देखा एक-दूजे को ................................................. अरुण
जहाँ खिला है वहाँ खुश है जिंदगी पाकर पिरोके माला में फूल, उसे मौत न दे .............. अच्छा है, गर महलों को गरीबी में सादगी दिखती और दिखते गरीबों को महलों के ख्वाब ................................................. अरुण
सारा अस्तित्व एक का एक है कहीं कोई भेद नही, कोई टुकड़ा नही मेरा अस्तित्व अलग और तेरा अलग - ऐसा भी नही कुदरत स्वयं को जिस दृष्टि से देखती है उसी दृष्टि से देखने पर सारा अस्तित्व क्या है यह समझ आता है ......... टुकड़ों में जो दिखे – कैसा वजूद? मेरा वजूद, तेरा वजूद, उसका वजूद? कुदरत को जिस तरह से दिखे, वैसा दिखे वही सच्चा है- तेरा और मेरा, सबका वजूद ................................................ अरुण
ठीक से देखना बने तो दिखे कि बाहर, पेड की छाया बनती है, बनायीं नही जाती पेड उगता है, उगाया नही जाता धरती चलती है, चलाई नही जाती ऐसे ही भीतर, साँस चलती है चलाई नही जाती धडकन चलती है चलाई नही जाती विचार भी चलते हैं, चलाए नही जाते चलानेवाले के बिना ही सबकुछ चल रहा है चलानेवाला है ही नही और सब हो रहा है इस सच्चाई से जुडी जीवन्तता ही है एक निर्बोझ जीवन-प्रवाह ..................................... अरुण
किनारे खड़ा आदमी अगर बहती नदी के बहाव को देखकर प्रसन्न है तो मतलब प्रसन्नता बहाव के कारण है केवल जल के कारण नही ऐसे आदमी को संग्रहित जल, बहाव का आनंद नही दे सकता जिंदगी का आनंद भी उसके बहाव में है अनुभवों के संग्रह में नही ......................................... अरुण
करने वाला हो तो वह कुछ करेगा ही ‘ कुछ नही करना ’ भी करने के बराबर ही है करते करते जब उसने खुद को गहराई और व्यापकता से देखना शुरू किया वह खुद ‘ देखना ’ बन गया फिर कुछ करने का सवाल ही कहाँ? देखना ही- देखने को- देखता रहा करनेवाला अपने देखने के साथ दिखता रहा पहले था केवल करना करना करना अब है केवल देखना देखना देखना ................................................... अरुण
भारत के सही प्रतिनिधित्व का दावा करनेवाला समस्त भारतीय मीडिया गये दो दिन केवल इस बात को लेकर परेशान था कि बराक ओबामा साहब पाकिस्तान को हमारे समर्थन में कुछ सुनाते क्यों नही ?- पाकिस्तान के नाम पर चुप्पी क्यों साधे हुए है? गहरे में सोचा जाए तो कहीं न कहीं हमारे भीतर से मानसिक गरीबी और लाचारी की गंध आ रही थी सामने का पक्ष (अमेरिका) खुले तौर पर बिना किसी ढकोसले के, समान धरातल पर खड़े होकर, हमारा आर्थिक सहयोग मांग रहा था फिर भी, हमसे सौदे की पेशकश करने वाले इस ‘ मित्र-सौदागर ’ से सौदा करने के बजाय (यानी हाँ या ना करने के बजाय ) हम उससे कह रहे थे पहले कुछ आँसू जतलाइए और फिर बात होगी सामने का पक्ष भारत को दुनिया की महान शक्ति कह कर संबोधित कर रहा था (दिल से हो या मतलब से) और हम एक लाचार की तरह उससे सहानुभूति की मांग कर रहे थे क्या यह सब किसी ‘ महान शक्ति ’ का परिचायक है? ...................................................................... अरुण
बीते क्षणों, दिनों और वर्षों की गठडी स्मृति के रूप में बन गई एक सजीव पुतला हर नूतन क्षण, दिन और वर्ष को पुरातन बनाती हर नए जागे को पुराने में सुलाती और सोये हुए को ही मौत के पूर्ण विराम तक ले जाती लहर को कभी भी सागर न बनने देती किरण में न सूर्य को उभरने देती स्मृति की इस गठडी को विस्मरण हुआ सारे समस्त सकल अस्तित्व का अपने ही अस्तित्व में डूब जाने के कारण ........................................... अरुण
दृष्टि यदि साफ हो और सामने फैला प्रकाश हो तो रास्ता चुनना नही पडता कदम सही रास्ते पर पड़ते हैं अपने आप कोई निर्णय लेना नही पडता न ही गलती से बचने की किसी जिम्मेदारी का बोझ ढोना पडता है ये सारी बातें कि क्या सही, क्या गलत, कौन सा अपना कौन सा पराया – केवल दृष्टिविहीनों के लिए हैं दृष्टिवानो के लिए नही ...................................... अरुण
जीवन की यात्रा अजीब है यहाँ आदमी अपनी ही जगह खड़ा है और रास्ता पीछे की तरफ ढल रहा है आदमी को लगता है कि उसने एक लंबी दूरी पार कर ली हिसाब बताता है कि कदम अभी वहीं के वहीँ खड़े है यह यात्रा नही केवल यातायात है ........................... अरुण
नींद में गाड़ी चलाना जो उसे आता है बिन टकराए रास्तों से गुजर जाता है -बात ट्रक चालक की हो रही है कई बार ऐसा होता है रात को जागकर गाड़ी चलाते चलाते भोर में अचानक झपकी लग जाती है इसी झपकी में ट्रक-चालक मीलों तक बिना कहीं टकराए ट्रक को हांककर ले जाता है ऐसी अर्ध-निद्रावस्था में भी शरीर बिना त्रुटि काम करता है कहीं, इसी तरह के बेहोश-होश में तो हम सब नही जी रहे ? यानी Not living, just managing the life पूर्ण होश ही जागरण है सच्चे प्रकाश का आगमन है .................................................. अरुण
क्या ही अच्छा हो कि एक ऐसा सम्यक दीपक जल उठे सभी के जीवन में जो अँधेरा भी मिटाए और उजाले की चकाचौंध भी कष्ट से छुटकारा दे और सुख पाए हुए को समाधान .................................... अरुण
अच्छा है जो मेरी सांसे मेरे प्राण, मेरी धड़कने मुझसे पुछ कर नही चलती वरना विचारों के तल पर मै जिस तरह फडफडा रहा हूँ शरीर के तल पर भी फडफडाता रहता उठना बैठना चलना फिरना सब मुश्किल बन जाता .......................... अरुण
सारी कहानी एक ही जीवंत क्षण में घट रही है सूरज है, किरणें हैं, धूप है गर्मी है, है पसीना है पसीने की नमी का बदन को छूता स्पर्श सूरज से लेकर उस स्पर्श और उसके भी आगे का सारा अनुभव एक ही क्षण में भीतर के खालीपन को छूता है पर जैसे ही उस खालीपन में देखनेवाला उभर आता है सारी बातें बट जाती हैं सूरज अलग, किरणे अलग, धूप भी कहीं दूर अलग और पसीने का अनुभव भी अलग ही अलग पहले एक का एक और अब सब अलग अलग ....................................... अरुण
विचार बहुत शरारती हैं आदमी में बोध या जागरण का भ्रम जगाते हैं अपनी नकली दुनिया में ही आदमी को उलझाये हुए, उसमें मुक्ति का आकर्षण पैदा करतें हैं फिर विचारों के रसायन से बना यह मन मन ही मन मुक्ति ढूँढने लगता है मुक्ति तो पाता नही मुक्ति की लालसा में उलझे हुए आदमी को कई बाबाओं, ग्रंथों, क्रियाकलापों और उपायों – तंत्र मंत्र आदि की दुनिया में भटकाता है ........................................... अरुण
अनुवांशिकता और जन्मोपरांत का लालन पोषण दोनों के मिलन से बना रसायन निर्धारित करता है कि पृथ्वी पर आए प्राणी को मनुष्य कहा जाए या लोमड़ी या कुछ और मनुष्य के पिल्ले को जंगल में उठाकर ले गई लोमड़ी के यहाँ पला बढ़ा वह पिल्ला लोमड़ी की तरह ही आचरण करने लगा- यह सत्य कथा प्रायः सब को ही पता है निष्कर्ष यह कि हम जन्म से मनुष्य नही है जैसा और जहाँ लालन पोषण हुआ वैसे ही हम ढले ----- मानुष ना हम जन्म से मानुष एक विकास जिस प्राणी का पालना उसका मुख में ग्रास ............................................................... अरुण
राह चलता यात्री जो दृश्य जैसा है वैसा ही देखे तो उसे नदी नदी जैसी, पर्वत पर्वत जैसा, चन्द्र- चंद्र की तरह और सूर्य में- सूर्य ही दिखाई देगा परन्तु यदि दृश्य पर पूर्वानुभवों, पूर्व-कल्पनाओं और पूर्व-धारणाओं का साया चढाकर यात्रा शुरू हो तो शायद नदी लुभावनी परन्तु पर्वत डरावना लगे चंद्र में प्रेमी की याद तो सूर्य में आग का भय छुपा दिख जाए सारी सीधी सरल यात्रा भावनाओं और प्रतिक्रियाओं से बोझिल बन जाए ................................................................ अरुण